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हिमांशु गिरी - सीईओ, प्रथम बुक्स


on Sep 05, 2022
himanshu giri

हिमांशु गिरी को प्रकाशन, बिक्री, संचालन और विपणन में 25 से अधिक वर्षों का अनुभव है। प्रथम बुक्स से पहले, उन्होंने स्कोलास्टिक के भारत संचालन की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।


फ्रंटलिस्टः किसी भी बच्चे के जीवन में हिंदी की किताबें उतनी ही महत्त्वपूर्ण हैं जितनी अंग्रेजी की किताबें। प्रथम बुक्स की किताबें बच्चों को हिंदी बाल साहित्य में रुचि लेने के लिए कैसे प्रेरित करती हैं?

हिमांशुः भारत और हिंदी भाषी क्षेत्र के संदर्भ में यह कहना अधिक उचित है कि हिंदी किताबें अंग्रेजी किताबों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। हमारे देश के बच्चे अगर तीसरी कक्षा में पहुँचकर भी अपनी कक्षा की पुस्तकें नहीं प्ढपाते (असर रिपोर्ट) तो इसका एक कारण मातृभाषाओं में उच्च गुणवत्तापूर्ण पुस्तकों का अभाव भी है। यही कारण है कि नई शिक्षा नीति मातृभाषाओं पर अधिक जोर देती है और बच्चों को पाँचवीं कक्षा तक की शिक्षा मातृभाषाओं में देने की सिफारिष करती है (एनईपी 2020, अनुच्छेद 22.14)। 2004 में ‘हर बच्चे के हाथ में एक किताब’ पहुँचाने के लक्ष्य से जब प्रथम बुक्स की स्थापना हुई,  तो निश्चित रूप् से हमारा हर बच्चे को उसकी अपनी भाषा में किताबें पहुँचाने का लक्ष्य था और है। भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा होने के कारण निश्चित रूप् से हमने उच्च गुणवत्तापूर्ण हिंदी पुस्तकों पर जोर दिया है। हमारे संगठन की स्थापना ऐसे समय पर हुई जब न तो हमारे पास भारतीय भाषाओं में बाल साहित्य प्रकाषित करने वाले अधिक प्रकाशक थे, न ही बच्चों को मातृभाषा में पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करने वाले लोग। माता-पिता से लेकर आसपास के लोग और बहुत हद तक अध्यापक भी उन्हें अंग्रेजी पुस्तकें पढ़ने के लिए ही अधिक प्रेरित करते थे। प्रथम बुक्स ने ऐसे समय में मातृभाषाओं में पुस्तकों की कमी को पूरा करने का काम किया। मेरा घर, मेरे दोस्त, मेेरा परिवार, आम का पेड़ जैसे बेहद सामान्य विषयों पर आधारित पुस्तकों से हमने बच्चों का ध्यान पढ़ने की तरफ आकर्षित किया। अपनी भाषा में इन किताबों को हाथ में लेकर, पढ़कर बच्चों को लगा ये तो हमारी अपनी कहानी है और फिर सिलसिला चल पड़ा बच्चों की प्रथम बुक्स और मातृभाषा में किताबें पढ़ने का। हमन अब तक 26 से अधिक भारतीय भाषाओं में 600 से अधिक किताबों की रचना की है। ये भाषाएँ और इतनी किताबें बच्चों की जरूरत और उनकी माँग के अनुसार प्रकाशित की गई हैं।

2015 में स्ओरीवीवर ;ूूूण्ेजवतलूंअमतण्वतहण्पदद्ध के जरिए डिजिटल मंच पर आने के बाद तो हमने इसमें क्रांतिकारी बदलाव देखे हैं। स्टोरीवीवर आज दुनिया का सबसे प्रख्यात डिजिटल प्लेटफाॅर्म है जो कि 190 से अधिक देशों में बोली जाने वाली 310 से अधिक भाषाओं को 45000 से अधिक कहानियों के माध्यम से बच्चों और शिक्षकों तक पहुँचा रहा है और वो भी बिल्कुल मुफ्त में।

सन् 2020 से 2022 के शुरुआती महीनों तक हमने वैश्विक महामारी का जो दौर देखा, जिसमें स्कूल, लाइब्रेरी, आँगनवाड़ी साहित बच्चों की शिक्षा के सभी मार्ग बंद थे, उस समय भी प्रथम बुक्स स्ओरीवीवर के जरिए लगातार सक्रिय था। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस दौर में हमने फाउंडेषन लिटेसी प्रोग्राम रीड / होम के जरिए हिंदी और मराठी में बच्चों को उनकी शिक्षा स्तर और कक्षा स्तर के अनुरूप मनोरंजक पठन सामग्री प्रदान की।

इतना ही नहीं हमारा ध्यान उन बच्चों पर भी था जिनके पास या घर में स्मार्टफोन नहीं था, हमने ऐसे बच्चों के लिए मिस्ट काॅल दो, कहानी सुनो अभियान शुरू किया। इसके जरिए बेहद साधारण फोन से भी बच्चे टाॅल फ्री नंबर पर मिस्ड काॅल देकर अपनी मनपसंद भाषा में कहानी सुन सकते थे। आपको हैरानी होगी कि हमारे इस अभियान को अपार सफलता प्राप्त हुई। हमारा यह प्रोग्राम अभी भी चल रहा है। अभी भी बच्चे 08068264449 नम्बर पर मिस्डकाॅल देकर मुफ्त में कहानी सुन सकते हैं।

फ्रंटलिस्टः हिंदी प्रकाषन उद्योग में प्रकाषक अभी भी अंग्रेजी प्रकाषकों से पिछड़ रहे हैं। इस पर आप क्या सोचते हैं? क्या हम कभी हिंदी  पुस्तकों को अंग्रेजी से अधिक महत्त्व देंगे?

हिमांशुः मैं इस बात से पूर्णतः सहमत नहीं हूँ। हाँ हम यह कह सकते हैं कि हमारे चारों तरफ अंग्रेजी का बाजार और प्रचार अधिक है। अगर हिंदी भाषाएँ या क्षेत्रीय भाषाओं के प्रकाशक पिछड़ रहे होते तो पुस्तक मेलों और क्षेत्रीय बुक स्ओर पर हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं की माँग इतनी अधिक ना होती। अनुवार का बढ़ता उद्योग भी हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के महत्त्व का ही द्योतक है। अगर भारत का लगभग हर बच्चा प्रेमचंद और रवीन्द्रनाथ टेगोर से परिचित है तो वो हिंदी के ही जरिए है, इसीलिए बांग्ला भाषा की सुप्रसिद्ध रचनाकार महाश्वेता देवी ने कहा था, “अगर मेरी रचनाओं का हिंदी मंे अनुवाद ना हुआ होता तो मैं बांग्ला भाषा मात्र की रचनाकार होकर रह जाती, अगर आज मैं पूरे भारत में पढ़ी और सराही जाती हूँ तो उसका कारण हिंदी भाषा में मेरी रचनाओं का अनुवाद ही है।” फिर चाहे यह परिचय मूल भाषा के जरिए हो या अनुवाद के जरिए। मैं अकेले प्रथम बुक्स की बात करूँ तो आज हम हर साल 10 लाख से अधिक किताबें केवल हिंदी में छाप रहे हैं और क्षेत्रीय भाषाओं में भी लगभग 5 लाख किताबें हर साल प्रकाशित करते हैं। यह आंकड़ा प्रकाशन क्षेत्र में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के बढ़ते प्रभाव का ही परिचायक है।

बहुत हद तक हम हिंदी पुस्तकों को अंग्रेजी से अधिक महत्त्व दे रहे हैं। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हम किस भाषा क्षेत्र की बात कर रहे हैं। हिंदी भाषी क्षेत्रों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, दिल्ली में हिंदी पुस्तकों की ही माँग और बिक्री अधिक है। न्यू एजूकेशन पोलिशी जिस तरह से मातृभाषाओं पर जोर दे रहा उस आधार पर आगे हम हिंदी पुस्तकों को और अधिक बढ़ते हुए देख सकते हैं।

फ्रंटलिस्टः नई षिक्षा नीति 2020 ने पहली पाँच कक्षाओं के लिए भाशाओं के पाठ्यक्रम की षुरुआत की। जबकि उनके माता-पिता चाहते हैं कि वे अंग्रेजी में पढ़ाई करें तो इसका बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

हिमांशुः हाँ मैं समझता हूँ कि जरूर पड़ेगा, नई शिक्षा नीति ने पहले पाँच कक्षाओं तक स्पष्ट रूप से से मातृभाषा /घर की भाषा/स्थानीय भाषा/क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से शिक्षा की सिफारिश की है (एनईपी 2020, अनुच्छेद 4.9)। अगर मातृभाषा में पठन संसाधन ना हो तो कक्षा में संचार का माध्यम क्षेत्रीय भाषा ही रखने का प्रावधान है (एनईपी, अनुच्छेद 4.11)। शैक्षिक मनोविज्ञान के शोध अथवा यूनेस्को की रिपोर्ट 2008 के अनुसार मातृभाषा में सीखना आसान होता है क्योंकि इसमें जानना और समझना आसान होता है। अगर कोई चीज मातृभाषा में समझी जाये तो वह लम्बे समय तक स्थायी रहती है।

लोगों के बीच यह भ्रामक धारणा है कि अंग्रेजी में पढ़ने से बच्चे अधिक सफल और विद्वान होते हैं, यही कारण है कि माता-पिता बच्चों को अंग्रेजी भाषा में शिक्षण पर अधिक जोर देते हैं। उनको लगता है कि यदि उनका बच्चा क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा ग्रहण करेगा तो पीछे रह जाएगा। अपनी भाषा में जो अपनापन है वह बहुत से जटिल विषयों को भी आसानी से समझा देती है इसीलिए नई शिक्षा नीति में स्थानीय भाषा में कई नये कोर्स शुरू करने की बात की गई है। कला से संबंधित विषयों में स्ािानीय कलाकारों, स्थानीय कला और संस्कृति को महत्त्व दिया जाएगा। इस तरह से बच्चे अपनी भाषा, संस्कृति के प्रति जागरूक होंगे और समाज में स्थानीय भाषा को लेकर जो हीनभावना है वह भी दूर होगी। स्थानीय भाषा की तुलना में अंग्रेजी में पढ़ने को महत्त्व देने वाले माता-पिता इसी समाज का हिस्सा हैं, जब वह समाज में बदलाव को भाँपेंगे तो उनकी स्थानीय भाषाओं के प्रति हीन भावना स्वतः ही दूर हो जाएगी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण प्रथम बुक्स के हाल ही के अनुभव और  पहल की ये झलकियाँ हैं:

 ीजजचरूध्ध्लवनजनण्इमध्उब्ब्वसथ्8ीबऋा राजस्थान सरकार और यूनिसेफ के एक प्रोजेक्ट के तहत वंचित समुदायों के बच्चों की शिक्षा के लिए यह पहल की गई थी। स्थानीय भाषा में पढ़ने की खुशी को आप इस वीडियो से ही भाँप सकते हैं।

फ्रंटलिस्टः एनईपी 2022 प्रकाषकों के साथ-साथ षिक्षा प्रणाली को कैसे बदल रही है? क्या यह हमारी युवा पीढ़ी के लिए फायदेमंद होगा?

हिमांशुः राश्ट्रीय षिक्षा नीति हमारी षिक्षा प्रणाली के साथ प्रकाषकों की भाशा के प्रति रवैये को भी बदल रही है। वह हिंदी और स्थानीय भाशा में मूलभूत साक्षरता को ध्यान में रखते हुए पठन सामग्री का निर्माण कर रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का लक्ष्य 2025 तक कक्षा तीन तक के सभी बच्चों को आधारभूत साक्षरता और संख्या ज्ञान सुनिश्चित करना है। एक रिपोर्ट के अनुसार कक्षा तीन के 36 प्रतिशत छात्र समझ के साथ एक पैराग्राफ भी पढ़ने में असमर्थ हैं (एनसीईआरटी 2017) और दो में से एक छात्र अपनी कक्षा की पुस्तक पढ़ने में समर्थ नहीं है (असर 2019)। भारत में मूलभूत साक्षरता की आवश्यकता का इससे अधिक प्रमाण नहीं दिया जा सकता। पिछले दो सालों में महामारी ने शिक्षा व्यवस्था को बहुत प्रभावित किया। शिक्षा व्यवस्था में अध्यापकों और छात्रों की आवश्यकता के अनुरूप नई, उपयोग में आसान पद्धति और तकनीक का प्रयोग किया गया। भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी 2020) के तहत 2025 तक सभी बच्चों के लिए मूलभूत साक्षरता प्राप्त करने को अभियान बना दिया गया है। इसका लक्ष्य देश भर के स्कूलों में पढ़ने की संस्कृति का निर्माण करना है। नीति आधारित अभियान का लाभ निश्चित रूप् से प्रकाशकों को मिलेगा क्योंकि इससे बच्चों के लिए उच्च गुणवत्ता वाली किताबों की माँग बढ़ेगी।

यह हमारी युवा पीढ़ी के लिए निश्चित रूप फादेमंद होगा। यह सांस्कृतिक दृष्टि से जहाँ एक तरफ उन्हें अपनी भाषा संस्कृति के प्रति जागरूक करेगा, वहीं दूसरी तरफ मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने के कारण उनका ज्ञान स्थायी होगा। क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा के प्रसार के कारण युवाओं के लिए रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।

फ्रंटलिस्टः क्या हम अगले पाँच वर्शों में हिंदी प्रकाषन के फलने-फूलने की उम्मीद कर सकते हैं? 

हिमांशुः वर्तमान युग तकनीक का युग है। अब से कुछ साल पहले तक अंग्रेजी को ही तकनीक की भाषा माना जाता था। इससे यह डर भी बढ़ रहा था कि हिंदी और क्षेत्रीय भाषाएँ सीमित हो जाएंगी पर आज स्थिति भिन्न है। तकनीकी क्षेत्र में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं का दखल बढ़ा है। नई शिक्षा नीति के तहत तकनीक को दिए गये महत्त्व और दीक्षा, स्वयं आदि पोर्टलों द्वारा हिंदी भाषा में इनके क्रियान्वयन ने यह साबित कर दिया है कि आने वाले समय में प्रकाशन के क्षेत्र में भी हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है। मातृभाषाओं में ई प्रकाशन का बढ़ता प्रभाव, आॅडियो किताबों का प्रचलन, ई पुस्तकालय, हिंदी गद्य कोष, हिंदी कविता कोष आदि के प्रसार आने वाले कल मंें हिंदी की प्रगति का सूचक हैं। तकनीकी क्षेत्र में स्थानीय भाषा के बढ़ते प्रभाव का अंदाजा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि 2016 में अंग्रेजी भाषा में इंटरनेट का इस्तेमाल 176 मिलियन लोग करते थे जबकि 234 मिलियन लोग भारतीय भाषाओं में करते थे। 2021 में अंग्रेजी भाषा में यह आंकड़ा 199 मिलियन जबकि भारतीय भाषाओं में 536 मिलियन यानी दोगुने से भी अधिक बढ़ने की संभावना की गई थी। भारत में अगले पाँच वर्षों में हर दस नये इंटरनेट यूजर में से नौ के भारतीय भाषा में इंटरनेट इस्तेमाल करने की संभावना जताई गई है ;ैबवचम वित च्तवउवजपदह ठींें (भाषा) ंदक छम्च् 2020ए छम्च् ॅमइपदंत वद च्तवउवजपवद व िप्दकपंद स्ंदहनंहमेए ब्मदजतंस प्देजपजनजम व िप्दकपंद स्ंदहनंहमए डलेवतमए च्ंहम 16द्ध। प्रथम बुक्स में हमारा स्वयं का अनुभव भी यही कहता है कि हिंदी साहित क्षेत्रीय भाषाओं में हमारा प्रकाशन वर्ष दर वर्ष लगातार बढ़ा ही है। कभी भारतीय भाषाओं में हमारी पुस्तकों की बिक्री की संख्या लाख तक भी मुश्किल से पहुँचती थी, आज यह संख्या करोड़ों तक भी पहुँच जाती है। पिछले सालों मंे कई प्रकाशन संस्थाओं की स्ािापना भी हुई जो खासतौर पर हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रकाशन के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। इन सब बातों को देखते हुए मुझे लगता है कि आने वाले पाँच वर्षों में हिंदी प्रकाशन क्षेत्र में कुछ बड़ा सकारात्मक परिवर्तन देख सकते हैं।

फ्रंटलिस्टः क्या आप मानते हैं कि ई-काॅमर्स प्लेटफाॅर्म ने पहले से बड़े सतर पर हिंदी पुस्तकों को बेचने में सहायता की है?

हिमांशुः जी हाँ, ई-काॅमर्स ने ना सिर्फ हिंदी पुस्तकों को बड़े स्तर पर बेचने में सहायता की है बल्कि इसने अन्य भाषाओं की पुस्तकों के भी प्रचार-प्रसार और बिक्री में योगदान किया है। आज लगभग सभी प्रकाशन संस्थाओं/गृहों के आॅनलाइन प्लेटफार्म हैं, जहाँ वह अपनी पुस्तकांें की बिक्री के संबंध में सारा ब्यौरा देते हैं। बस उस प्लेटफाॅर्म पर जाकर पाठक पुस्तक का स्टाॅक देख सकता है एवं अपनी मनपसंद पुस्तक खरीद सकता है। दुकान पर जाकर पुस्तक खरीदने से, इस तरह पुस्तक खरीदना कहीं अधिक सरल है। यही नहीं ई-काॅमर्स पर पाठक के पास प्रिंट पुस्तक के साथ डिजिटल पुस्तक खरीदने का विकल्प भी है। पुस्तक की किंडल प्रारूप, आॅडियो बुक इसी का उदाहरण हैं। ई-काॅमर्स का ही कमाल है कि हम हिंदी और क्षेत्रीय भाषा की पुस्तकों को देष के कोने-कोने तक पहुँचा पा रहे हैं।

फ्रंटलिस्टः क्या हिंदी पुस्तकों की बिक्री कभी अंग्रेजी पुस्तकों की बिक्री की ऊँचाई को छू पाएगी? क्या हाल के वर्शों में हिंदी पाठकों को आंकड़ों में वृद्धि हुई है, या हम अभी भी उसी स्थान पर हैं?

हिमांशुः इस सवाल का जवाब देने से पहले हमारे लिए यह जान लेना आवश्यक है कि क्या सचमुच हमारे देश में अंग्रेजी पुस्तकों की बिक्री सबसे अधिक है? अगर हाँ, तो बिक्री के मुख्य क्षेत्र कौन से हैं? हकीकत है कि पुस्तक खरीदने वालों में अंग्रेजी पाठकों की ही संख्या अधिक है, ये वो उपभोक्ता हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं और अपने बच्चों को अंग्रेजी ही पढ़ता देखना चाहते हैं। यहाँ बच्चे स्वयं नहीं तय करते कि उन्हें क्या पढ़ना है, बल्कि उनके अभिभावक इसका चयन करते हैं। दूसरी बात यह कि भाषा विशेष में किताबों की बिक्री का आंकड़ा हर जगह एक जैसा नहीं है। यह बात तो सच है कि अंग्रेजी पुस्तकें पूरे देष मंे पढ़ी और समझी जाती हैं, परंतु उत्तर भारत, मध्य भारत, देश के पश्चिमी हिस्सों में अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी में पुस्तकें खरीदने वाले अधिक हैं। हमारे 18 सालों के अनुभव से हम यह कह सकते हैं कि आने वाले समय निश्चित रूप से हिंदी पुस्तकों और क्षेत्रीय भाषाओं की पुस्तकों की बिक्री का आंकड़ा बढ़ेगा। नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा फाॅर्मूला (एनएपी, अनुच्छेद 22.8) इस चीज को और अधिक बल देगा।

हम जानते हैं कि हिंदी भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। यह देश के अधिकांश हिस्सों में बोली या समझी जाती है देश के 20.22 प्रतिशत हिस्से में किसी अन्य मातृभाषा के साथ हिंदी भी मातृभाषा की ही तरह प्रचलित है। 6.16 प्रतिशत हिस्से में हिंदी द्विभाषी स्थिति में है जबकि 2.60 प्रतिशत हिस्से में हिंदी तीसरी भाषा के रूप् में मौजूद है। इस आंकड़े के आधार पर नई शिक्षा नीति शिक्षा के क्षेत्र में हिंदी की स्थिति को बहुत बेहतर बनाएगी। देश के लगभग 70 प्रतिशत हिस्से में हम हिंदी को पहली, दूसरी या तीसरी भाषा के रूप् में पाएंगे। ऐसा होने से हिंदी पाठकों के आँकड़ों में वृद्धि होना स्वाभाविक है।

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